हम बहुत पाप कर चुके अब और नही,,क्षिप्रा संरक्षण और संवर्धन के लिए 200 की बजाये 300 मीटर क्षेत्र संरक्षित हो,,,,

 


सिंहस्थ क्षेत्र में स्थायी निर्माण की अनुमति नहीं, वहीं क्षिप्रा तट पर ही निर्माण की अनुमति से पैदा हो रही विसंगति

जागो क्षिप्रा पुकारे, क्षिप्रा संरक्षण अभियान उज्जैन नगर की विभिन्न सामाजिक संस्थाएं, संगठन, पर्यावरण विद, शिक्षाविद् एवं वरिष्ठ जनों ने दर्ज कराई आपत्ति

उज्जैन। नगर सीमा में आने वाली लगभग पूरी क्षिप्रा सिंहस्थ क्षेत्र में आती है। सिंहस्थ क्षेत्र में किसी भी प्रकार के स्थायी निर्माण की अनुमति नहीं है। जब क्षिप्रा तट पर ही निर्माण की अनुमति दी जाएगी तो इससे विसंगति पैदा होगी और अन्य स्थानों पर निर्माण की अनुमति न देना औचित्यहीन हो जायेगा। समस्त सिंहस्थ क्षेत्र को संरक्षित रखने हेतु क्षिप्रा तट के १०० मीटर के उपरान्त किसी भी प्रकार की निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।



उपरोक्त के आधार पर इस संरक्षित क्षेत्र में नदी तट से 100 मी. के बाद किसी भी प्रकार के निर्माण के प्रस्ताव पर जागो क्षिप्रा पुकारे, क्षिप्रा संरक्षण अभियान उज्जैन नगर की विभिन्न सामाजिक संस्थाएं, संगठन, पर्यावरण विद, शिक्षाविद् एवं वरिष्ठ जन ने एकत्रित होकर अवर सचिव, नगर एवं ग्राम निवेश विभाग की ओर अपना विरोध दर्ज कराया। साथ ही कहा कि संपूर्ण सिंहस्थ क्षेत्र संरक्षित ही रखा जाना चाहिये। इस विषय पर हुए संवाद में कहा कि हमारी आपत्ति मान्य करते हुए क्षिप्रा नदी के तट से दोनों ओर 200-200 मी. का क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र घोषित कर किसी भी प्रकार के निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहियें। साथ ही कान्ह नदी क्षिप्रा की सहयोगी नदी है, क्षिप्रा संरक्षण में उसकी अहम भूमिका है और रहने वाली है, अतः उसके संरक्षण के लिए उसके तट को भी 200 मीटर संरक्षित किया जाए। क्षिप्रा नदी के दोनों और 200-200 मी. क्षेत्र का संरक्षित किया जाना प्रस्तावित है। इस क्षेत्र में आवासीय, वाणिज्यिक अथवा सार्वजनिक-अर्धसार्वजनिक विकास निषेधित किये गए है। किंतु इसी के आगे क्षिप्रा नदी से 100 मी. की दूरी के बाद अगले 100 मी. संरक्षित क्षेत्र में आश्रम, मठ, प्रवचन हॉल, धर्मशाला एवं रिसोर्ट स्वीकृत की जा सकेंगी। ये सभी गतिविधियां सार्वजनिक-अर्धसार्वजनिक उपयोग एवं वाणिज्यक उपयोग अंतर्गत आती हैं। अर्थात् 200 मी. संरक्षित क्षेत्र के बाद ये उपयोग प्रस्तावित होने चाहिये, न कि संरक्षित क्षेत्र के भीतर। इस मौके पर संबोधित करते हुए आचार्य शेखर महाराज ने कहा कि सर्वप्रथम क्षिप्रा को नदी कहना ही अनुचित है उसे सिर्फ मोक्षदायनी, पाप हरनी मां के रूप में ही जाना माना और पुकारा जाना चाहिए, जिसमें स्वयं गंगा मुक्ति के लिए आती हैं। उसके महत्व को किसी भी रूप में कम नहीं किया जा सकता, उसके अस्तित्व के साथ पूर्व में ही हम बहुत पाप कर चुके अब और नही। शासन को 200 मीटर को घटा कर 100 नहीं बल्कि उसके संरक्षण और संवर्धन के लिए 200 मीटर से सीमा कम से कम 300 करनी चाहिए। संवाद में शामिल गोपाल महाकाल, श्रीकांत जोशी, लोकेन्द्र शास्त्री, दिलीप पंवार, शैलेन्द्र चित्रांशी, रवि भूषण श्रीवास्तव, मुकेश दुबे, कैलाश सोनी, प्रो. प्रमोद कुमार वर्मा, मनु गौतम, अरविन्द चोरे, अभिषेक निगम, एस.एन. शर्मा, जी.पी. मिश्रा, केशर सिंह पटेल, डॉ. प्रतिमा जोशी, प्रकाश चित्तोडा, राजश्री जोशी, सोनू गहलोत, डॉ. विमल गर्ग, दिवाकर नातू, आनंदी लाल जोशी, अजय भातखंडे, राजीव पाहवा ने आपत्ति दर्ज कराई।

क्षिप्रा के स्वरूप को संरक्षित रखने की घोषणा की थी प्रधानमंत्री ने

सिंहस्थ २०१६ में आयोजित वैचारिक कुम्भ में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समस्त संतों एवं वरिष्ठ समाजजनों के समक्ष मंच से यह घोषणा की थी कि आने वाले वर्षों में इस प्रकार की योजनाओं पर कार्य किया जायेगा जिससे क्षिप्रा का स्वरुप संरक्षित हो और वह सदा नीरा और प्रवाहमान बन सके। न सिर्फ क्षिप्रा अपितु देश की सभी नदियों की चिंता ली जाएगी।

मुख्यमंत्री ने दिलाया था संकल्प क्षिप्रा को सदा नीरा और प्रवाहमान रखने का

सिंहस्थ २०१६, २५ अप्रैल सांय “दत्त अखाडा” क्षिप्रा के तट पर परमार्थ आश्रम के स्वामी चिदानंदाजी द्वारा आयोजित क्षिप्रा आरती में संत अवधेशानंदजी, मुरारी बापु, हरी गिरी जी एवं विशाल जन समुदाय के समक्ष मुख्यमंत्री ने संकल्प लिया और दिलाया था कि आगामी सिंहस्थ २०२८ के पूर्व क्षिप्रा सदा नीरा और प्रवाहमान हो, उसके लिए माँ क्षिप्रा का पूर्ण रूप से संरक्षण किया जायेगा। उसके दोनों तटों को वृक्षारोपण के माध्यम से हरियाली की चादर से आच्छादित किया जायेगा।

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